अपने ही अन्तर्मन में प्रसन्न रहने को ख़ुश रहना कहते हें।
मैं प्रकृति हूँ। मेँ अपने अस्तित्व मेँ ख़ुश रहती हूँ। अपने होने मेँ प्रसन्न रहती हूँ।
एक नारी के रूप मेँ मैने ख़ुश रहने की कला सीख ली है।
मैं हर रिश्ते का भरण पोषण करती हूँ। माता पिता, सास ससूर,बहन, दोस्त और बाकी रिश्ते। में सबको अपने प्रेम से परिपूर्ण करती हूँ। मुझे इसमें खुश रहना चाहिए। पर ऐसा हो नहीं पाता।मुझे खुशी नहीं मिलती जब तक मुझे उतना ही प्रेम वापस ना मिले। मैं चाहती हूँ कि सारे रिश्ते मुझे उतना ही सम्मान करें और में उस सम्मान के लिए और मेहनत करने को तत्पर रहती हूँ।
यह एक आदर्श प्रकरण है आदर्श समाज का।
पर इंसानी आदतें(गुस्सा, जलन, खुंदक), उस आत्मा को बांध देती हें जो यह सब चाहता है। एक आत्मा काम करती है दूसरी आत्मा की खुशी के लिए। पर दूसरी आत्मा इंसानी प्रकृति की बुरी आदतों में गुम चुकी हो तो फिर रिश्तों मे से खुशी गुम हो जाती है। और इस नाखुशी से प्रकृति का सामंजस्य खराब होता है।
अगर हम खुद को निश्चल रखना चाहते हैं तो हमें खुद को खुशी के पास स्थित करना होगा। तो जब हम इस चकव्यूह से निकलने की कामना करते हैं, भगवान हमारी मदद करते हैं। हमें अपने पास रहने की खुशी देते हैं ; हमें अपने सानिध्य का सुख देते हैं।हम हमेशा ध्यान में खुश रहते हैं क्यूंकी हम भगवान का ही अंश हैं। इसी कारण से तरह तरह के ध्यान तथा योग का जनम हुआ है।
यह एक आदर्श शरण है। पर अगर आपको हमेशा इस शरण में रहना है तो आपको दूसरों का अनुसरण करके खुश होना छोड़ना होगा। भगवान से प्रेम वो ही कर पाता है जिसका मन निश्चल है। और जो खुद को ही नहीं समझ पाया वह भगवान तक पहुंचने में असफल हो जाता है।
आप सब प्रकृति हो। अपने आप को प्यार करो जैसे हो उस रूप में। तुम्हारी अलग अलग आदतों से तुम्हारे पहचान है । खुशी ढूंढो औरों में नहीं पर खुद औरों के लिए खुशी का स्त्रोत बनकर।
अगर मैं खुश हूँ तो लोग मेरी तरफ अपने आप आकर्षित होते हें , उस खुशी का भागीदार बनने के लिए।
वह जल्स्त्रोत बनो जिसे चखने के लिए सब आतुर हों । तुम वह शक्ति हो। अपनी कद्र करो और दुनिया तुम्हारी कद्र करेगी।
अगर अपने आप से संभव नहीं हो रहा तो नारायणपुर में मंदिर आओ , तुम्हें जीने की शक्ति मिलेगी।
हरी ॐ शक्ति।
हरी ॐ शिवा।